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कवि की कविता हो या नदी की धारा !!

मेरा मन !
मेरा मन !
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किसी कवि की कविता हो तुम ,
या हो नदी की निर्मल धारा!
मन मंदिर में यूँ समाई हो,
जैसे हो मेरे जीवन की धारा !
तेरी यादो के सागर में ,
मदभरी तुम्हारी निगाहों में !.
मै एैसे डूबा रहता हूँ
जैसे तुम मदिरा और मै प्याला!
सागर की सी गहराई लिए ,
तेरे चंचल नयनो की मादकता!
आग लगा देती है दिल में ,
जैसे हो दहक रहा अंगारा !
लाल गुलाब की लाली लिए,
जब तेरा कोमल अधर है मुस्काता,!
रोम-रोम मेरा यु है जलता,
जैसे तपते सूरज से जलता है जग सारा !

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