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जीवन क्या है!

मेरा मन !
मेरा मन !
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क्यों है मन इतना बेचैन मेरा,
क्या ढूंढ़ रहा क्या सोच रहा?
नभ के टूटे तारो में ,अतीत के सुनहरी यादो में!
क्या खोज रहा है मन मेरा,क्यों उलझा हुआ विचारो में!!
कल तक जो नभ का प्यारा था,आज वो टुटा तारा था!
अपने अस्तित्व को ढूंढ़ रहा ,वह डूब रहा बेचारा था!!
क्या यही सत्य है मानव तन का?यह जीवन झूठी आशा है?
जो आया है उसे जाना है ,बाकि बस एक छलावा है!!
नित्य नये स्वप्न संजोता हुआ ,क्यों इतना दुर्बल है मानव मन!
क्यों सत्य नही स्वीकार इसे,झूठे वादों से प्यार इसे!!
हर घरी बदलते नातों पर क्यों है इतना एतबार इसे?
अपने मन की यह व्यथा कथा किससे मै कहू और कौन सुने ?
है भाग रहे सब बिना थके उचे निचे जीवन पथ पे!
किसे है इतना फुरसत यहाँ कि एक पल भी जरा रुके!!
लौट के फिर मै आ जाता हु विस्तृत नीले गगन के निचे!
दूर बहूत एक कोने पर फिर एक टुटा तारा डूब रहा!!
जिसे देख यह उद्गिन्न मन मेरा बार बार ये पूछ रहा!
क्या यही सत्य है जीवन का झूठा सब रिश्ता नाता है!!
पल भर पहले जो अपना था पल में पराया होता है!
जो टूट गया ओ डूब गया बाकि चमकता तारा है!!
यहाँ नही किसी का कुछ अपना सब यही रह जाता है!
ख़ाली हाथ सब आया है और ख़ाली ही जाना परता है!!

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