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मेरा मन !

मेरा मन !
मेरा मन !
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वह नवयौवन का नव उमंग था ,
या किशोर प्रेम का पागलपन !
प्रेम सुधा पीने को आतुर
क्यों इतना था ये तन और मन !
उम्मीदों के विराट गगन में ,
आशाओ के कल्पित व्योम में !
प्रीत का कल्पित पंख लगाकर,
क्यों था उरने को व्याकुल मेरा मन!
वह नव बसंत का आगमन था ,
या तपते ग्रीष्म का पागलपन!
प्रेम के रस में डूबने को आतुर ,
क्यों था इतना मेरा तन और मन !
स्वर्णिम सपनो के मायालोक में,
सुन्दर भविष्य के व्यापक मोह में!
हर लौकिक बंधन तोरने को आतुर,
क्यों था प्रेमरस में भींगा बिद्रोही मन!
यह एक नये युग का सुभागमन था ,
या एक नये खून का उच्श्रीख्ल्पन !
इस जर समाज के हर पुरातन सोच को,
क्यों बदलने को आतुर है पागल मन!

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